राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, इन तीनों राज्यों में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन राज्यों में सभी पार्टियां सियासी रण में उतर चुकी है. वर्तमान में चुनावी वादें, लोकप्रिय और लुभावनी घोषणाएं करने में बीजेपी और कांग्रेस बहुत आगे हैं.
जहां एक तरफ राजस्थान में गहलोत सरकार ने किसानों के कर्ज माफी, आरक्षण पॉलिटक्स से लेकर कई योजनाओं की भरमार कर दी है. तो वहीं दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में भी शिवराज सरकार ने चुनावी वादों की झड़ी लगा दी है.
हालांकि तमाम घोषनाओं के बीच कुछ वादें ऐसे हैं जिसे पूरा करने का न सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस बल्कि हर छोटी से बड़ी पार्टियां ने वादा किया है. हम बात कर रहें है गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा की. चुनाव प्रचार के दौरान इन तीनों ही राज्यों में गरीबी का मुद्दा काफी उठाया गया. सभी पार्टियों ने अपने अपने तरफ रोजगार लेने से लेकर बेरोजगारों को पैसे देने तक तमान वादे किए है. लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वाकई ये पार्टियां इन तीनों राज्यों में गरीबी मिटाने में कामयाब हो पाएंगीं.
इस स्टोरी में जानते हैं कि आखिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, में चुनाव से पहले कितने लोग गरीबी रेखा से भी नीचे है?
क्या है गरीबी की परिभाषा
भारत में गरीबी उस स्थिति को कहा जाता है जब एक इंसान रोटी, कपड़ा और मकान जैसे बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में असमर्थ हो. वर्ल्ड बैंक के अनुसार, कल्याण में अभाव को भी गरीबी कहा जाता है और ये कई सारी चीजों पर निर्भर करती है, जैसे कि स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छ जल, सुरक्षा, आवास, आय के बेहतर साधन.
कैसे मापी जाता है गरीबी रेखा
सबसे पहले साल 1962 में योजना आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी का अनुमान लगाने के लिए एक कार्य समूह का गठन किया था. इस कार्य समूह ने ग्रामीण क्षेत्र के लिए 20 रुपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 25 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष गरीबी रेखा बनायी.
इसके बाद साल 1979 में अलघ समिति का गठन किया गया और साल 1993 में लकड़ावाला समित का गठन किया गया. जिसके अनुसार भारत के ग्रामीण इलाकों में 28.3 % लोग गरीबी रेखा के नीचे थे और शहरी इलाकों में 25.7% प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के अंदर आते थे.
इसके बाद भारत ने साल 2005 में सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समूह का गठन योजना आयोग द्वारा किया गया. तेंदुलकर समिति का गठन इसीलिए किया गया क्योंकि पहले का जो उपभोग पैटर्न था वो पिछले 1973-74 के गरीबी रेखा के अनुसार था, विशेषज्ञों का मानना था कि इतने सालों में गरीबों के उपभोग पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव आ गया था. इस समिति के अनुसार ग्रामीण इलाकों में 41.8% प्रतिशत लोग और शहरी इलाकों में 27.5 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे आते हैं.
भारत में साल 2014 तक गरीबी रेखा का निर्धारण ग्रामीण इलाकों में 32 रुपए प्रतिदिन और कस्बों तथा शहरी इलाकों में 47 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से निर्धारित की गई थी. लेकिन साल 2017 में गरीबी दूर करने के लिए नीति आयोग ने एक विज़न डॉक्यूमेंट प्रस्तावित किया था. जिसमें साल 2032 तक भारत में गरीबी दूर करने की योजना तय की गई थी.
इस डॉक्यूमेंट में बताया गया था कि गरीबी दूर करने हेतु तीन चरणों में कम करना बेहद जरूरी है. पहला, देश में गरीबों की सही संख्या का पता लगाया जाए. दूसरा, गरीबी खत्म करने संबंधी योजनाएं लाई जाएं और तीसरा इन योजनाओं को लागू कर इसकी मॉनीटरिंग की जाए.
अब जानते हैं उन राज्यों का हाल जहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
राजस्थान
साल 2023 में लोकसभा में दिए गए एक सवाल के जवाब में कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय ने बताया कि राजस्थान में कुल मिलाकर 1.02 करोड़ लोग यानी कुल जनसंख्या का 14.7% आबादी गरीबी रेखा से नीचे हैं. हालांकि साल 2015-16 में हुए एक नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के अनुसार राजस्थान में 28.86 प्रतिशत लोग गरीब थे.
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य में गरीबी का आलम ये है कि विकास के तमाम दावों के बाद भी राजस्थान में लगभग 60 प्रतिशत आबादी बिना गैस सिलेंडर के चूल्हे पर रोटियां बना रही है.
हालांकि नीति आयोग की एक रिपोर्ट को अनुसार गहलोत सरकार के इस कार्यकाल में यानी इन चार साल में 1 करोड़ 8 लाख 16 हजार 230 लोग गरीबी से बाहर आए हैं. ये पूरे देश में यूपी, बिहार और एमपी के बाद सर्वाधिक है.
इन मामलों में पिछड़े
एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में अब भी 34.09% ऐसे लोग हैं जिनका परिवार पूर्ण रूप से पोषित नहीं है. इसके अलावा लगभग 29 प्रतिशत से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनके घरों में शौचालय नहीं है.
इस राज्य में लगभग 10 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल रहा है. इसके अलावा राजस्थान में लगभग 45 प्रतिशत से ज्यादा लोगों के पास पक्के मकान नहीं हैं. जबकि 10 प्रतिशत से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनके पास संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं हैं.
5 साल में घटे 1 करोड़ गरीब
गहलोत सरकार के पिछले कार्यकाल में इस राज्य में में 1 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी से बाहर आ गए. राज्य में साल 2015 से 16 में 28.68 प्रतिशत लोग गरीब थे. जबकि 2019-21 के सर्वे में 14.7 प्रतिशत लोग गरीब रहे.
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश नीति आयोग अगस्त की शुरुआत में बहुआयामी गरीबी पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य में गरीबी में 15.94 प्रतिशत कमी आई है. यानी लगभग 1.36 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं.
बता दें कि मध्य प्रदेश की ग्रामीण क्षेत्र में गरीबों की आबादी में 20.58 प्रतिशत की कमी आई है. साल 2015-16 की एनएफएचएस 4 रिपोर्ट में यह संख्या 45.9% थी, जो की साल 2019-21 के एनएफएचएस-5 में कम होकर 25.32% तक आ गई थी.
इस राज्य के शहरी क्षेत्रों की बात करें तो मध्य प्रदेश के शहरी इलाकों के गरीब आबादी में 6.62% की गिरावट आई है. साल 2015-15 में आए एनएफएचएस 4 की रिपोर्ट में यह 13.72 प्रतिशत थी जो साल 2019-21 की रिपोर्ट में कम होकर 7.1% तक आ गई है.
छत्तीसगढ़
नीति आयोग ने “राष्ट्रीय बहुआयानी गरीबी सूचकांक प्रगति समीक्षा 2023” रिपोर्ट जारी की है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में बड़ी संख्या में लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर आ गए हैं.
छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां पर फिलहाल भूपेश बघेल की सरकार है. इस राज्य में कुछ महीनों में पांच साल का कार्यकाल खत्म हो जाएगा और विधानसभा चुनाव होगें. हालांकि छत्तीसगढ़ में बहुआयामी गरीबी से लोग बाहर आ रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार राज्य में पिछले 5 सालों में 40 लाख लोगों ने अपने जीवन में परिवर्तन पाया है और बहुआयामी गरीबी से बाहर आ गए हैं. मिली जानकारी के मुताबिक शहरों की तुलना में गांवों में गरीबों की संख्या में तेजी से कमी आई है.
इस राज्य में साल 2015-16 और साल 2019-21 के बीच 13.53 प्रतिशत लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं. साल 2015-16 में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले की आबादी 29.90 प्रतिशत थी. जो कि साल 2019-20 में घटकर 19.37 फीसदी रह गई है.
बहुआयामी गरीबी क्या है
दुनिया के ज्यादातर देश गरीबी को पैसे की कमी के रूप में परिभाषित करते हैं. जबकि एक गरीब व्यक्ति को पैसे के अलावा भी एक समय पर कई नुकसान झेलने पड़ सकते हैं. आसान भाषा में समझे तो गरीब व्यक्ति का स्वास्थ्य खराब हो सकता है या फिर वह कुपोषण का शिकार हो सकता है. इसके अलावा उस व्यक्ति के पास पानी या बिजली की कमी भी हो सकती है या फिर स्कूली शिक्षा की कमी भी हो सकती है. ऐसे में गरीबी की व्यापक तस्वीर को बहुआयामी गरीबी के मानक पर रखा जाता है.