<p style="text-align: justify;">हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जो कभी हमारा ही हिस्सा था, दिनों दिन संकट में गहरे फंसता जा रहा है. आर्थिक बदहाली से लेकर पाकिस्तानी तालिबान की समस्या हो, या सिंध और बलूचिस्तान में फैलता विरोध, पाकिस्तान बदहाल हो चुका है. भारत इस हालात से बिल्कुल अप्रभावित दिख रहा है. भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच कुछ वर्षों से मेलजोल ना के बराबर है. आखिरी बार 2021 की फरवरी में वह दिखा, जब दोनों देश संघर्षविराम पर राजी हुए थे. दिल्ली इस बात पर अड़ी है कि आतंकवाद को समर्थन पूरी तरह से इस्लामाबाद बंद करे. पाकिस्तान भी कोई बहुत इच्छुक नहीं दिखता है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>बीते 8 वर्षों में संबंध सबसे निचले स्तर पर </strong></p>
<p style="text-align: justify;">अभी विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हालांकि पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो को मई में गोआ में होने वाले शंघाई सहयोग संगठन के लिए न्योता भेजा था. यह न्योता अगर बिलावल मान कर आते हैं तो पिछले 12 वर्षों में किसी पाकिस्तानी विदेशमंत्री की यह पहली यात्रा होगी. हिना रब्बानी खार ही इससे पहले 2011 में भारत दौरे पर आई थीं.</p>
<p style="text-align: justify;">2016 की जनवरी में पठानकोट पर आतंकी हमला हो या उसी साल सितंबर में उरी पर हुआ हमला, इनसे संबंध बहुत बिगड़े. 2019 के पुलवामा हमले और उसी साल जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद तो रिश्ते ठंडे से भी ठंडे हो गए. पाकिस्तानी विदेशमंत्री के उलजबूल बयान ने और घी में आग डाला, जब उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री मोदी को ‘गुजरात का कसाई’ कहा था. भारत ने उसका तीखा प्रतिवाद किया और जब पाकिस्तानी पीएम शहबाज शरीफ ने –‘भारत के साथ तीन युद्ध लड़कर हमने नुकसान ही उठाया है’,- वाला बयान दिया तो भारत के रुख में भी नरमी आई.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आतंकवाद के मुद्दे पर भारत का रुख कड़ा </strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारीत ने ये साफ कर दिया है कि वह अपनी सुरक्षा और स्वायत्तता से जुड़े मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करेगा. भारत का यह भी रुख है कि अगर पाकिस्तान या किसी भी देश से कोई मसला है तो उसे आपस में बैठकर शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाया जाए. पाकिस्तान के कश्मीर-राग पर कोई विराम नहीं है और इसे भारत अपनी स्वायत्तता के लिए ठीक नहीं समझता है. पाकिस्तान के पूर्व पीएम इमरान खान फिलहाल पाकिस्तानी अवाम से समर्थन सबसे अधिक पा रहे हैं और वह लगातार इस भाषा में बात करते हैं कि भारत अनुच्छेद 370 निरस्त नहीं कर सकता है. भारत उसे आंतरिक मामलों में दखल मानता है. वैसे, दोनों देश जब वार्ता की टेबल पर बैठेंगे तो शायद पुरानी बात न रहे. दिल्ली निर्णायक रूप से इस्लामाबाद के साथ मेलजोल को बदलना चाहती है. यह कोई बड़े अचरज की भी बात नहीं, क्योंकि भारत के पक्ष में सबसे बड़ा अंतर आर्थिक स्थिति का आया है. भारत की इकनॉमी अभी पाकिस्तान से दस गुणी हो गई है और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पाकिस्तान की आंतरिक हालत बदहाल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">पाकिस्तानी एलीट क्लास अपनी इकनॉमी नहीं ठीक कर पा रहे हैं, महंगाई आसमान छू रही है, आटे तक के लिए भगदड़ मची है और राजनीतिक हालात भी स्थिर नहीं हैं. अभी का जो पाकिस्तान में सत्ताधारी गठबंधन है, जिसमें नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग और आसिफ जरदारी की पापीपा (पाकिस्तान पीपल्स पार्टी) शामिल हैं, ने भी बीते ती दशकों में कई बार भारत के साथ शांति स्थापित करने की पूरी कोशिश की है, लेकिन सेना की वजह से उन्हें पीछे हटना पड़ा. आज उनका अपना घर ही ठीक नहीं. वे इमरान खान के खिलाफ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. भारत के साथ संबंध सुधारना सेनाध्यक्ष असीम मुनीर की भी शीर्ष प्राथमिकता नहीं है. उनकी घरेलू समस्याएं ही बहुत हैं.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>तो, क्या पाकिस्तान को पूरी तरह छोड़ दें</strong><strong>?</strong></p>
<p style="text-align: justify;">पाकिस्तान अगर टूटा-फूटा या बर्बाद हुआ, तो भारत के लिए भी ठीक नहीं होगा. बांग्लादेश युद्ध के बाद हम देख चुके हैं कि भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों की कितनी घुसपैठ हुई है. हम पहले ही बेहद घनत्व वाली जनसंख्या के देश हैं. साथ ही, पाकिस्तान अगर विफल राष्ट्र होगा, तो हमें कई तरह की समस्या झेलनी पड़ेगी. ड्रग्स से लेकर आतंकवाद और शरणार्थियों का रेला, ये सब कुछ होगा. इसलिए, एक विफल पाकिस्तान हमारे हक में नहीं है. हां, भारत पूरी मजबूती और सख्ती से उससे बात करे. आतंकवाद पर अपना रुख कड़ा रखे और पाकिस्तान की सहायता करे.</p>
<p style="text-align: justify;">यह विचार हो सकता है कि ‘पॉपुलर’ नहीं हो, लेकिन ‘प्रैग्मैटिक’ यही है. जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख में एस राजामोहन ने दिवंगत डिप्लोमैट सतिंदर लांबा को याद करते हुए बताया है कि किस तरह वह 2004 से 2007 के दौरान भारत-पाकिस्तान समझौते के बहुत करीब पहुंच चुके थे, लेकिन अंतिम समय पर राजनीतिकों ने कदम खींच लिए. पब्लिक ओपिनियन का दबाव भी कई बार राजनीतिकों को अपने लिए हुए फैसले बदलने के लिए मजबूर कर देता है. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]</strong></p>