आम चुनाव, 2024 को लेकर हर राजनीतिक दल राज्यवार अपनी रणनीति को बनाने और अंजाम देने में जुटा है. सरल तरीक़े से देखें, तो प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की स्थिति विपक्ष के मुक़ाबले बेहद मज़बूत नज़र आ रही है.
‘इंडिया’ गठबंधन के तले कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिवसेना (उद्धव गुट), एनसीपी (शरद पवार गुट), डीएमके और लेफ्ट दलों के साथ ही कई अन्य छोटी-छोटी पार्टियों की सामूहिक ताक़त से बीजेपी को फ़िलहाल कोई बड़ा ख़तरा नहीं दिख रहा है. बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं को उम्मीद है कि देश की जनता लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जतायेगी.
आम चुनाव, 2024 और बीजेपी की ताक़त
आम चुनाव, 2024 के लिए बीजेपी के लिए सबसे बड़ा एडवांटेज या प्लस प्वाइंट तो ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. इसके साथ ही इस बार राम मंदिर का मुद्दा भी पार्टी को पहले के मुक़ाबले ज़ियाादा फ़ाइदा पहुँचा सकता है, इसकी भी भरपूर गुंजाइश है. इनके अलावा कमज़ोर और बिखरा विपक्ष भी बीजेपी की संभावनाओं को बल प्रदान कर रहा है. विपक्ष मोदी सरकार के ख़िलाफ़ ढंग से लोगों के बीच अब तक मुद्दा तैयार करने या कहें गढ़ने में विफल रहा है. यह पहलू भी बीजेपी के पक्ष में जाता है.
बिहार में बीजेपी को नुक़सान की संभावना
इसके बावजूद कुछ राज्य हैं, जिनको लेकर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व पसोपेश में है. ये वैसे राज्य हैं, जिनमें 2019 में बीजेपी की अगुवाई में एनडीए का प्रदर्शन बेहतरीन रहा था, लेकिन इस बार हालात और सियासी समीकरण पूरी तरह से बदले हुए हैं. इनमें दो राज्य..बिहार और पश्चिम बंगाल..ख़ास तौर से शामिल हैं. इन दोनों राज्यों में भी बिहार ऐसा राज्य है, जिसमें बीजेपी की अगुवाई में एनडीए को सबसे अधिक हानि उठाना पड़ सकता है.
बदले हालात में इस बार बिहार में चुनाव
ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि 2014 और 2019 के लोक सभा चुनाव के मुक़ाबले इस बार बिहार का सियासी समीकरण पूरी तरह से बदला हुआ है. बिहार वो राज्य है, जिसने 2014 और 2019 दोनों ही चुनाव में एनडीए को भरपूर प्यार मिला था.
बिहार में कुल 40 लोक सभा सीट है. लोक सभा चुनाव, 2014 में एनडीए के खाते में बिहार से 40 में से 31 सीटें आई थी. इनमें बीजेपी को 22, राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी या’नी एलजेपी 6 और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसी को तीन सीटों पर जीत मिली थी. 2019 में तो बिहार में एक तरह से एनडीए शत-प्रतिशत सीट हासिल करने के एकदम क़रीब पहुँच गया था. एनडीए के खाते में 40 में से 39 सीटें गयी थी. इनमें बीजेपी को 17, नीतीश कुमार की जेडीयू को 16 और एलजेपी को 6 सीटों पर जीत मिली थी. सिर्फ़ एक सीट पर ही विपक्ष जीत पाया था. किशनगंज सीट कांग्रेस के खाते में गयी थी. आरजेडी का तो खाता तक नहीं खुला था.
बिहार की राजनीति पर जाति का प्रभाव
सवाल उठता है कि पिछले दो लोक सभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बावजूद इस बार बीजेपी की सबसे बड़ी चिंता बिहार को लेकर ही क्यों है. अगर पिछले दो लोक सभा चुनाव के तात्कालिक हालात का विश्लेषण करते हुए मौज़ूदा स्थिति पर ग़ौर करें, तो, यह समझना ज़ियादा आसान होगा.
अभी जो स्थिति है, उसके मुताब़िक 2024 के चुनाव में बिहार में आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेगी. वहीं बीजेपी के पास मुख्य सहयोगी के तौर पर एलजेपी का दोनों धड़ा रहेगा. बाक़ी जीतन राम माँझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं का अब बिहार में कुछ ख़ास प्रभाव रह नहीं गया है.
बिहार एक ऐसा राज्य है, जहाँ चुनावी समीकरण का काफ़ी हद या कहें पूरी तरह से जातीय समीकरणों से निर्धारित होता है. यहाँ वोटिंग पैटर्न पर जाति हावी है. यह विधान सभा के साथ ही लोक सभा चुनाव पर भी कमोबेश लागू होता है. पिछले तीन दशक के चुनाव पर नज़र डालें, तो इस पहलू को ब-ख़ूबी समझा जा सकता है. व्यावहारिक तौर से यह कहा जा सकता है कि बिहार में चुनाव जीतने को लेकर पार्टियां जो भी रणनीति बनाती हैं, उसका मुख्य आधार जातिगत समीकरण ही होता है. ऐसे तो अन्य प्रदेशों में भी जाति फैक्टर बेहद महत्वपू्र्ण होता है, लेकिन बिहार में इसका बोलबाला कुछ ज़ियादा ही है.
आरजेडी-जेडीयू की काट खोजना मुश्किल
बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू और तेजस्वी यादव की आरजेडी के बीच की जुगल-बंदी या गठजोड़ बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चिंता के साथ सबे बड़ा ख़तरा है. जेडीयू और आरजेडी के आने से बिहार में जिस प्रकार का जातिगत राजनीतिक समीकरण बन गया है, उसकी काट खोजना बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए आसान नहीं है.
बिहार में 2005 से जितने भी चुनाव हुए हैं, चाहे लोक सभा हो या विधान सभा चुनाव हो, एक ट्रेंड देखने को मिला है. अगर बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन हो जाए या फिर जेडीयू और आरजेडी का गठबंधन हो जाए, इन दोनों ही गठबंधन को हराना बेहद मुश्किल रहा है. इसके साथ ही यह भी देखने को मिला है कि जब बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी तीनों ही अलग-अलग पाले में होती है, तब बीजेपी का पलड़ा भारी रहता है.
सितंबर-अक्टूबर, 2005 और 2010 में हुए विधान सभा चुनाव में जेडीयू और बीजेपी मिलकर चुनाव लड़ती है. दोनों ही बार इस गठबंधन को जीतने में कोई ख़ास परेशानी नहीं होती है. फिर 2015 के विधान सभा चुनाव में जेडीयू और आरजेडी एक साथ चुनाव लड़ती हैं. इस गठबंधन को भारी बहुमत हासिल होता है और बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी बनने को विवश हो जाती है. इसके पाँच साल बाद 2020 में हुए विधान सभा चुनाव में एक बार फिर से जेडीयू और बीजेपी का गठजोड़ होता है और इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल हो जाता है.
जेडीयू के साथ का मिलता रहा है लाभ
पिछले तीन लोक सभा चुनाव की बात करें, तो 2009 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 40 से 32 सीटों पर जीत मिल जाती है, जिसमें जेडीयू के खाते में 20 और बीजेपी के पास 12 सीटें होती हैं. लोक सभा चुनाव, 2014 में जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी तीनों ही अलग-अलग खेमे में होती हैं. इसका सीधा लाभ बीजेपी को मिलता है. बीजेपी की अगुवाई में एनडीए 31 सीटों पर (बीजेपी-22, एलजेपी-06, आरएलएसपी-03) जीत जाती है. आरजेडी को 4 और जेडीयू को सिर्फ़ दो सीट से संतोष करना पड़ता है. कांग्रेस के खाते में एक सीट जाती है.
आम चुनाव, 2019 में बिहार का सियासी समीकरण फिर से बदला जाता है. जेडीयू, बीजेपी और एलजेपी एक पाले में होती हैं और दूसरे पाले में आरजेडी और कांग्रेस होती हैं. नतीजा चौंकाने वाला होता है. एनडीए 40 में से 39 सीट जीत जाती है. इसमें बीजेपी को 17, जेडीयू को 16 और एलजेपी को 6 सीटों पर जीत मिलती है. दूसरे पाले में कांग्रेस सिर्फ़ एक सीट जीत पाती है और आरजेडी का तो पत्ता ही गुल हो जाता है.
जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस का साझा वोट
लोक सभा चुनाव, 2019 के बिहार से जुड़े वोट शेयर का विश्लेषण करें, तो बीजेपी को 23.58%, जेडीयू को 21.81% और एलजेपी को 7.86% वोट हासिल होता है. दूसरी तरफ़ आरजेडी 15.36% वोट लाकर भी कोई सीट नहीं जीत पाती है और कांग्रेस का वोट शेयर 7.70 रहता है.
अगर 2019 को आधार बनाएं, तो बीजेपी और एलजेपी का साझा वोट शेयर 31.44 प्रतिशत बनता है. दूसरी तरफ़ जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस का साझा वोट शेयर तक़रीबन 45 फ़ीसदी हो जाता है. ग़ौर करने वाली बात है कि आम चुनाव, 2024 में बीजेपी-एलजेपी गठबंधन को जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन से ही चुनौती मिलेगी.
एलजेपी अब उतनी असरकारक नहीं
यहाँ पर बीजेपी के लिए एक और चिंता की बात है. उसकी सहयोगी एलजेपी अब उतना प्रभावकारी नहीं रह गयी है, जितना असर 2014 या 2019 तक था. इसका कारण है कि एलजेपी के सर्वेसर्वा राम विलास पासवान अब नहीं है और एलजेपी में भी दो फाड़ हो चुका है. एक धड़ा राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के पास है, तो दूसरा धड़ा राम विलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस के पास है. एलजेपी को 2014 में 6.40% और 2019 में 7.86% वोट हासिल हुआ था. बिना राम विलास पासवान के एलजेपी को फिर से उसका वोट बैंक हासिल होगा, इसमें संशय है.
लोक सभा चुनाव में बीजेपी को बिहार में जेडीयू के साथ से काफ़ी फ़ाइदा होते आया है. यह हम 2009 और 2019 में देख चुके हैं. हालाँकि 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी..नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के बग़ैर भी बिहार में बेहतर प्रदर्शन कर चुकी है. इस तथ्य के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 में जेडीयू और आरजेडी एक साथ नहीं थी. बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी में त्रिकोणीय लड़ाई थी, जिसका लाभ बीजेपी को मिल गया था. इसके साथ ही राम विलास पासवान के कोर वोट बैंक से भी बीजेपी को अच्छा-ख़ासा लाभ मिला था. इस बार जेडीयू और आरजेडी साथ हैं. साथ ही राम विलास पासवान के नहीं होने से एलजेपी के साथ का लाभ भी बीजेपी को पहले के मुक़ाबले कम मिलेगा, इसकी भी भरपूर संभावना है.
चार साल में आरजेडी मज़बूत होकर उभरी है
एक पहलू और है, जिससे बिहार को लेकर बीजेपी की चिंता बढ गयी है. विधान सभा चुनाव, 2020 से आरजेडी बेहद ही मज़बूत होकर उभरी है. तेजस्वी यादव की लोकप्रियता इन चार सालों में बढ़ी है. उनका राजनीतिक कद भी बढ़ा है. लालू प्रसाद यादव की छाया से निकलकर तेजस्वी यादव ने 2020 के विधान सभा चुनाव में दिखाया कि आरजेडी का भविष्य सुनहरा होने वाला है. पिछले साल बिहार में हुआ जातीय गणना का लाभ भी सबसे ज़ियादा आरजेडी को ही मिलने वाला है.
आरजेडी की ताक़त बिहार में जितनी बढ़ेगी, बीजेपी की परेशानी भी प्रदेश में उसी अनुपात में बढ़ेगी. जातीय समीकरणों के हावी रहने की वज्ह से उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में हिन्दू-मुस्लिम के साथ ही हिन्दुत्व का मुद्दा भी चुनाव में उतना प्रभावकारी नहीं रह जाता है.
बीजेपी के पास स्थानीय चेहरा प्रभावकारी नहीं
बिहार को लेकर बीजेपी की एक चिंता और भी है, जिससे उसके लिए 2014 और 2019 की तरह प्रदर्शन दोहराना आसान नहीं होगा. प्रदेश स्तर पर फ़िलहाल बीजेपी के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसका प्रभाव पूरे बिहार में हो. जेडीयू के लिए नीतीश कुमार हैं, तो अब आरजेडी के लिए तेजस्वी यादव कुछ उसी तरह का प्रभाव बना चुके हैं. बीजेपी के कई नेता हैं, जो मोदी सरकार में मंत्री भी हैं. इनमें गिरिराज सिंह, आर.के. सिंह, नित्यानंद राय और अश्विनी चौबे जैसे नेता आते हैं. हालाँकि इनमें कोई भी नेता यह दावा नहीं कर सकता है कि नीतीश या तेजस्वी की तरह उनका प्रभाव पूरे प्रदेश में हो.
आम चुनाव, 2024 को देखते हुए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने सम्राट चौधरी को पिछले साल मार्च में बिहार का पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनाया. बीजेपी का यह क़दम प्रदेश के जातीय समीकरणों को साधने की एक कोशिश के तौर पर ही लिया जाना चाहिए. हालाँकि कोइरी समुदाय से आने वाले और आरजेडी छोड़कर 2018 में बीजेपी में शामिल होने वाले सम्राट चौधरी का प्रभाव पैन स्टेट है, ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता है. ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाने की कवायद के नज़रिये से बीजेपी का यह फ़ैसला कितना कारगर साबित होगा, यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा.
ओबीसी वोट बैंक में सेंधमारी मुश्किल
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी पिछले नौ महीने में बिहार में नीतीश-तेजस्वी सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा माहौल तैयार करने में भी उतने अग्रसर नहीं दिखे हैं, जिससे यह कहा जा सकता है कि ओबीसी ख़ासकर कोइरी-कुर्मी वोट बैंक का भरोसा पार्टी पर बनता दिख रहा हो. यह नहीं भूलना चाहिए कि बिहार में ओबीसी वोट बैंक में यादवों के बाद सबसे बड़ा हिस्सा कोइरी-कुर्मी का ही है. पिछले तीन दशक की राजनीति तो यह ही कहती है कि बिहार में इन दोनों ही समुदायों का समर्थन आरजेडी और जेडीयू को ही मिलते आया है. साथ ही 2024 के चुनाव में इस परिदृश्य में कोई बड़ा उलट-फेर हो सकता है, इसकी भी संभावना दूर-दूर तक नहीं दख रही है.
बिहार की राजनीति में बाक़ी मुद्दे गौण
पिछले दो लोक सभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने या उससे बेहतर प्रदर्शन करने के लिए बीजेपी की आस कुछ ऐसे मुद्दों पर टिकी है, जिसका असर अतीत में बिहार में कुछ ख़ास नहीं दिखा है. चाहे नरेंद्र मोदी फैक्टर हो या फिर राम मंदिर का मुद्दा हो. जिस राज्य में व्यावहारिक स्तर पर जातिगत समीकरण ही चुनाव में वोटिंग का मूलभूत आधार हो, वहाँ किसी पार्टी को हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर होने वाले ध्रुवीकरण का भी कोई ख़ास लाभ नहीं होने वाला है.
यह बात सही है कि बिहार में पिछले तीन दशक से बारी-बारी से लालू प्रसाद यादव परिवार या नीतीश कुमार ही सत्ता पर क़ाबिज़ रहे हैं. 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद यादव परिवार की सत्ता थी, तो उसके बाद से जेडीयू हमेशा ही सत्ता में रही है. इस अवधि में बिहार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव हुआ हो, ऐसा भी नहीं है. अभी भी देश के सबसे पिछड़े राज्यों में बिहार की गिनती होती है.
नीतीश कुमार और उनकी पार्टी नवंबर 2005 से सत्ता में हैं. बीच-बीच में बीजेपी और आरजेडी भी जेडीयू के साथ सरकार में रही है. बीजेपी तक़रीबन 12 साल जेडीयू के साथ बिहार की सत्ता में रही है. आरजेडी भी नवंबर 2015 से जुलाई 2017 और फिर अगस्त 2022 से जेडीयू के साथ प्रदेश की सत्ता में शामिल है. कुल मिलाकर तीनों ही दल यह नहीं कह सकता है कि उनके कार्यकाल में बिहार की बदहाली नहीं हुई है.
अगर आरजेडी अधिक सीट पर लड़ती है….
बिहार में नीतीश कुमार की लोकप्रियता घटी है. जेडीयू का ग्राफ भी तेज़ी से नीचे जा रहा है. ऐसे में बीजेपी के लिए राहत देने वाली बात यही हो सकती है कि आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस गठबंधन में नीतीश कुमार की पार्टी अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़े. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी के लिए जेडीयू के उम्मीदवारों को हराना आसान होगा. इसके विपरीत जितनी ज़ियादा सीटों पर आरजेडी चुनाव लड़ेगी, बीजेपी के लिए मुश्किलें उतनी ही बढ़ जायेगी. विपक्षी गठबंधन के तहत बिहार में जेडीयू और कांग्रेस के मुक़ाबले आरजेडी के उम्मीदवारों की जीतने की संभावना ज्यादा प्रबल है.
बीजेपी के लिए 2019 जैसा प्रदर्शन मुश्किल
जिस तरह से बिहार की राजनीति में जाति हावी है, चुनाव में विकास का मु्द्दा गौण होते आया है और भविष्य में भी कुछ ऐसा ही रहने वाला है. इस वज्ह से बिहार में एंटी इनकंबेंसी या सत्ता विरोधी लहर का फ़ाइदा भी बीजेपी को मिलने की संभावना नहीं है. उसमें भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मौजूदा कार्यकाल के शुरूआती पौने दो साल में बीजेपी भी प्रदेश सरकार का हिस्सा थी.
अगर पिछले तीन दशक की तरह ही 2024 के लोक सभा चुनाव में जातिगत समीकरणों का ही बोलबाला रहा, तो कम से कम बिहार में बीजेपी की परेशानी बढ़ेगी और पार्टी को भारी नुक़सान का सामना भी करना पड़ सकता है. इतना तो तय है कि बिहार में एनडीए को 2019 की तरह सीटें हासिल नहीं होने वाली है. बीजेपी अपना प्रदर्शन दोहरा दे, यही उसके लिए बिहार में जीत के समान ही होगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]
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